“राजनैतिक अर्थशाष्त्र की चाणक्य निर्मित रूपरेखा तथा चाणक्य का स्वतंत्रतावाद, अशोक के हस्तक्षेपवाद से बेहतर क्यों ?˝ इस विषय पर स्वराज्य की संजीव सान्याल से वार्ता
संजीव सान्याल एक सशक्त किंतु सीमित राज्य व्यवस्था में दृढ़ विश्वास रखते हैं और चाणक्य की राज्य व्यवस्था की वकालत करते हैं। उनका ये विश्वास है कि आधुनिक राजनैतिक चिंतन के निर्माण हेतु कौटिल्य रचित “अर्थशाष्त्र“ का पुनरावलोकन नितांत आवश्यक है। हालांकि तमाम विशेषताओं का सारा श्रेय कौटिल्य के कालखंड और उस काल की प्रौद्योगिकि को जाता है फिर भी अर्थशाष्त्र में समझने योग्य कई उल्लेखनीय तथ्य है।
कौटिल्य की अवधारणा है कि राज्य की भूमिका ये सुनिश्चित करना है कि वो मत्स्य न्याय पर आधारित ना हो, जहाँ बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। अनुबंधों के अनुपालन, न्याय व्यवस्था, उपभोक्ता संरक्षण और संपत्ति अधिकारों की रक्षा को सुनिश्चित कराना राज्य के महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व हैं ना कि कल्याणवादिता। चाणक्य कहते हैं यद्यपि उपरोक्त कार्यों हेतु राज्य के पास प्रचुर सामर्थ्य है तथापि उसे सीमित राज्य होना चाहिए | चाणक्य के मतानुसार, राज्य का लोगों के जीवन में हस्तक्षेप करने का कोई प्रयोजन नहीं है।
अशोक की राजाज्ञाएं इसके बिल्कुल उलट हैं, जिनमें अशोक एक हस्तक्षेपवादी की तरह बर्ताव करता है। अशोक का मत था कि वो अपनी प्रजा का पिता है और उसकी प्रजा को अपने हितों की रक्षा हेतु आवश्यकता है धर्म महामंतों की । संजीव सान्याल का मानना है कि भारतीय गणराज्य, अशोकवादी राज्य व्यवस्था है- कमज़ोर और सर्वव्यापक।
संजीव सान्याल आगे कहते हैं कि अगर कौटिल्य इस समय में वापस आते तो कहते ˝ग़रीबों की हिफाज़त, कल्याणकारी अनुदानों वाली प्रणाली के बजाए कार्यशील न्याय प्रणाली द्वारा ज़्यादा बेहतर ढंग से की जा सकती है। अन्यथा बड़ी मछली छोटी मछली को खाएगी।˝
कौटिल्य का यह भी मानना था कि जिस तरह ये बता पाना नामुमकिन है कि पानी में तैरते वक्त मछली, पानी भी पीती है उसी तरह से यह बता पाना भी नामुमकिन है कि राज्य कर्मचारियों द्वारा राजकीय कोष से पैसा खाया जाता है । शासन का मूलभूत सत्य है कि राजकीय कर्मचारी भ्रष्ट होते है ।
सान्याल यह कहते हुए अपनी बात समाप्त करते हैं कि “अर्थशाष्त्र“ हमारी विरासत का हिस्सा है और कौटिल्य द्वारा दी गयी राजनैतिक अर्थव्यवस्था की रूपरेखा का पुनः परीक्षण नितांत आवश्यक है।